भगवान् के साथ सम्बन्ध

 

    'परम प्रभु' के सिवा सब कुछ सापेक्ष है । केवल 'परम प्रभु' ही निरपेक्ष हैं लेकिन चूंकि 'परम प्रभु' हर सत्ता के केन्द्र में हैं इसलिए हर सत्ता अपने अन्दर अपने निरपेक्ष को लिये रहती है ।

 

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     आखिर यह बहुत सरल है, हमें केवल वही बनना है जो हम अपनी सत्ता की गहराइयों में हैं ।

१८ मई, १९५४

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     कोई चीज 'भागवत चेतना' के साथ एक होने से बढ़कर सुन्दर नहीं है ।

 

     यदि तुम पूरी सचाई के साथ खोजो तो तुम जिसे खोज रहे हो उसे अवश्य पाओगे, क्योंकि तुम जिसे खोज रहे हो वह तुम्हारे अन्दर ही है ।

 

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     भगवान् से कोई यह नहीं कह सकता, ''मैंने तुझे जान लिया है,'' फिर भी सब 'उसे' अपने अन्दर लिये रहते हैं और अपनी अन्तरात्मा की नीरवता में भगवान् की आवाज की प्रतिध्वनि सुन सकते हैं ।

१३ नवम्बर, १९५४

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     भगवान् को प्रकट करने में अक्षम होते हुए भी व्यक्ति भगवान् को जी सकता है, भगवान् का वर्णन कर सकने या उनके बारे में समझा सकने में अक्षम होते हुए भी व्यक्ति भगवान् की नित्यता को उपलब्ध और चरितार्थ कर सकता है ।

१५ दिसम्बर, १९५४

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२०


    जिसे भगवान् के साथ ऐक्य प्राप्त है उसके लिए हर जगह भगवान् का पूर्ण सुख और आनन्द है । वह हर जगह और हर परिस्थिति में उसके साथ रहता है ।

१७ दिसम्बर, १९५४

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    भगवान् के साथ सायुज्य : जिसे यह प्राप्त है उसके लिए सभी परिस्थितियां सचमुच इसके लिए अवसर बन सकती हैं ।

 

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     पूर्ण एकत्व का आनन्द तभी मिल सकता है जब जो करना है वह किया जा सके ।

 

     ''भगवान् को जीत लेना एक कठिन काम है'' - मेरा ख्याल है कि मैं इस वाक्य को भली- भांति नहीं समझ पाया ?

 

''जीत पाने'' को ''उपलब्ध करने'' या ''अधिकार में करने'' के अर्थ में लो । तुम कह सकते हो- भगवान् की चेतना को जीतना कठिन काम है ।

 

      टीका : मनुष्यों के लिए भगवान् के बारे में सचेतन होना और उनके' स्वभाव को अधिकार में करना कठिन है ।

 

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     जैसे-जैसे हम प्रगति करते और अपने-आपको अहंकार से शुद्ध कर लेते हैं, वैसे-वैसे भगवान् के साथ हमारी मैत्री अधिकाधिक स्पष्ट और सचेतन होती जाती है ।

 

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      भगवान् के साथ मैत्री : कोमल, एकाग्र और निष्ठापूर्ण जरा-सी पुकार पर उत्तर देने के लिए सदा तत्पर ।

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२१


     चेतना, समता ओर प्रेम के विकास के साथ भगवान् की समीपता हमेशा बढ़ेगी ।

 

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    भगवान् को उग्रता द्वारा नहीं लिया जा सकता । केवल प्रेम और सामंजस्य द्वारा ही तुम भगवान् तक पहुंच सकते हो ।

 

    शान्त रहो, मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।

१३ जुलाई १९६६

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    भगवान् के लिए अनुरक्ति अपने-आपको भगवान् के चारों ओर लपेट देती है और उनसे पूरा सहारा पाती है ताकि उसे पूर्ण विश्वास हो कि वह 'उन्हें' कभी न छोड़ेगी ।

 

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    भगवान् के लिए स्नेह : एक मधुर विश्वासपूर्ण कोमलता जो अपने-आपको अविरत रूप से भगवान् को अर्पण करती है ।

 

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   भगवान् के साथ घनिष्ठता : भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण ओर 'उनके' प्रभाव के प्रति पूर्ण ग्रहणशीलता, इस घनिष्ठता में कोई शर्त नहीं होती ।

 

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    भौतिक में भगवान् के साथ घनिष्ठता उसी के लिए सम्भव होती है जो ऐकान्तिक रूप से भगवान् के द्वारा भगवान् के लिए जीता है ।

 

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    प्राण में भगवान् के साथ घनिष्ठता : केवल शुद्ध, शान्त और कामनाहीन प्राण ही इस अद्‌भुत स्थिति तक पहुंचने की आशा कर सकता है ।

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२२


 

    भगवान् के साथ चैत्य में घनिष्ठता : पूर्णतया विकसित चैत्य की स्वाभाविक अवस्था ।

 

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    भगवान् के साथ सर्वांगीण घनिष्ठता : समस्त सत्ता भागवत स्पर्श के सिवा और किसी चीज से स्पन्दित नहीं होती ।

 

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    'उन्हें' वैसा होना अच्छा लगता है । 'वे' वैसे हैं ।

 

    और बस मर्म यह मानने में है कि ''उन्हें अच्छा लगता है ।''

 

    केवल वही होना नहीं जिसे इन्द्रिय-ग्राही बनाया जाता है बल्कि 'उसमें' भी होना जो इन्द्रियग्राही बनाता है । वही सब कुछ है ।

 

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    'सर्वव्यापी', 'शाश्वत पुरुष' अक्षय 'एकमेव' रहता है । 'उसकी' सेवा करने और उसे समझने के विभिन्न तरीके उसकी 'परम द्वस्तु' में कोई फर्क नहीं करते ।

 

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(सम्बन्ध के प्रकार)

 

'प्रभु' और उनकी 'शक्ति'

भगवान् और उनका भक्त

पिता ओर उसका बालक

गुरु और उसका शिष्य

'प्रेमी' और 'प्रेयसी'

'मित्र' और सहकर्मी

शिशु और उसकी जननी

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     अपने-आपको भगवान् के प्रति अर्पित करना, भगवान् को ग्रहण करना और वही बनना, भगवान् को संचारित करना और फैलाना : ये तीन युगपत् होनेवाली गतियां हैं जिनसे भगवान् के साथ हमारा पूर्ण सम्बन्ध बनता है ।

 

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